KAVITA

दूर आकाश में एक उड़ता पंछी पहने पर सपनों के, कहने को वह मस्त मलंग था, रहता डूबा वह अपनों में, बादल मानो उम्मीद का दरिया, उच्चाई पर ही थी उसकी दिनचर्या। फिर छाया काला ऐसा बादल, बिजली कड़ाकी मचा कोलाहल, पंछी देख के उसको घबराया, उसके कुछ भी सूझ न आया, दिल धड़का सांसें रुक सी गई थीं। सोच से पहले समझ थम गई थी। पंछी आंखें तक बंद न कर पाया, सर धरती पर आंखों में था अंधकार छाया।

बिजली ने उसको हंस हंस के उठाया, मानो जैसे मजाक उड़ाया। पंछी घायल जोर से रोया, पर धरती माँ ने ढांढस बैठाया, बोली पंछी फिकर न कर तू, धूल को पहले कर नतमस्तक तू, ऊँचाई तो बस है भ्रम और माया, बता वहाँ किसने अपना घर है बनाया। धूल से जो तू जुड़ा रहेगा, घर तेरा पेड़ों पे बना रहेगा, फिर ना कोई तुझको डराएगा, तूफान भी कुछ न कर पाएगा।

बोला पंछी मुझे फिर से है उड़ना, अंबर पे मुझे फिर से फिरना, हंस के धरती ने धूल उड़ाया घाव पे मानो मलहम लगाया, फिर पूछा धरती ने एक और सवाल, सोच में पंछी हुआ बेहाल, अम्बर से जो प्रेम करे वो, क्या नदियों को झुठला सकता है, बता अंबर और धरती में क्या सच्चा क्या झूठा है? पंछी बोला ये क्या है सवाल इसमें ना कोई सुर ना ताल, धरती बोली सोच जरा तू क्या अंबर पर रहने से तेरा पेट भर जाएगा? या धरती के न होने से अंबर ही रह पाएगा। पंछी बोला वो कुछ बूझ न पाया, उसको कुछ भी समझ न आया। समझ के पार है मेरा सवाल धरती बोली मुझे पता है तेरा हाल, लेकिन जब तू ये समझ पाएगा मन के चक्षु खोल पाएगा तभी अंबर तुझको फिर से अपनाएगा।

सुन के ये बात पंछी हिल सा गया, धूल का भवंडर ओझल सा गया, मन का चक्षु खुल सा गया, धरती, अंबर तारे अनेक, सब मन के अंदर के विवेक, न अंबर की ऊँचाई थी न समुद्र की गहराई थी, स्थिर था मन, सांसें भी अविचल, चिंतन न था न कोई हलचल, ऐसे में पंछी सब बूझ गया, व्यर्थ का रोना छूट गया। काल चक्र में कालनाथ के नाद में वह फिर मिल सा गया।

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Prashant Chand

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